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अघोरपंथ कर्णपिसाचिनि साधना बिधि

Submitted by Acharya89 on Mon, 05/20/2024 - 22:37

अघोरपंथ कर्णपिशाचिनी साधना में अंतर्गत जितना भी साधना है , यह सदैब याद रखना चाहिए पूर्ण निष्ठां संकल्प सही बिधि बिधान के साथ साथ गुरु की मार्गदर्शन नित्यंत जरुरी । इससे एक भी नही है तो यह रास्ता में चलना खतरा को निमंत्र्ण देने की साथ बराबर है । यह कर्णपिशाचिनी साधना कोई बचे की खेल नही होता है । जिसका ह्रदय मजबूत है वो साधक यह साधना कर सकता है । यंहा पर कर्णपिशाचिनी साधना की बारे में सम्पूर्ण जानकारी दे रहा हूँ ..अगर हमारा लेख आपको पसंद आये तो आप अपना साधक भाई और बहन को जरुर बता दिया करो ।

स्थान : तामसी बाताबरण का एकांत स्थल या शमशान या एकांत स्तित बट ब्रिख्य
बस्त्र : रक्तिम लाल या काला
आसन : लाल रक्तिम य काला कम्बल
दिशा : दक्षिणमुखी
माला : रुद्राक्ष ,लाल मुंगे की माला
टीका : सिंदुर
सामग्री : काला कपडा, लकडी का पटरा, कांसे की थाली
समय : अर्धरात्रि के बाद
तिथि : अमाबस्या या शुक्ल दितिया
मंत जाप : सबा लाख
पुर्नाहुति : द्शांश

कर्णपिसाचिनि साधना मंत्र :

“चले पिशाची कर्ण बिराजे
कर्ण पर जाकर भेद बताबे,
पिये मंद की धार-लेओ भोगन आपना
करो ह्मारा साथ मेरी बातो का भेद नही बताओगी
तो कर्ण पिशाचिनी नहि कह्लाबेगी, मेरा कहा काटे तो
भैरो नाथ का चिमटा बाजे, अघोड की आन
निरोकार की दुहाइ, सत्य नाम आदेश गुरु का ।। ”

यन्हा यह स्मरण रख्ना चाहिये कि जब तक नीरब शांति है, तभी तक कर्णपिसाचिनि साधना मंत्र जाप करना चाहिये, फिर मानसिक ध्यान मे रह्ना चहिये । सज्या साधना स्थान पर ही करनी चाहिये । आसन को ही सज्या बनाना और उसे उठाना नही एबं बन्ही आस-पास मल-मुत्र त्याग करना होता है ।

इस कर्णपिसाचिनि साधना मे साधक को स्नान नही करना चाहिये । जुटे बर्तन मे ही सभि दिन भोजन करना । साधक को फलो एबं दुध आदि पर रह्ना चाहिये! स्थान बर्जित है और मंत्र जाप के समय निबस्त्र जाप करना चाहिये । पुर्नाहुति के बाद किसी कुबारी कन्या को भोजन करबाना चाहिये,जो रजस्वला नही हो ।

पुर्नाहुति अनुस्ठान मे खीर, ख्याण्ड, पुरी, सराब (देसी), गुगुल, लौंग, इत्र, अंडे आदि का प्रयोग किया जाता है । इसके बाद स्त्री के लाल बस्त्र एबं श्रुंगार सामग्रि अर्पित करनी चाहिये ।

कर्णपिसाचिनि साधना मे दीपक 11 होते हैं और तेल चमेली का प्रयुक्त किया जाता है । उपयुक्त बिधिया मे नारी को भैरवी के रुप मे प्रयुक्त किया जाता है । यन्हा प्रस्तुत करना कहना उचित नहि है, अपितु यह कहना चाहिये कि सह्योगिनी बनाया जाता है । उसके शरीर पर मुर्दे की कलम से श्मशान के कोयले मे सिंदुर एबं चमेली का तेल मिलाकर कर्णपिसाचिनि साधना मंत्र लिखा जाता है ।

इस साधिका को कर्णपिसचिनी मानकर साधक उसके साथ रति भी करता है, परंतु यह रति वैसे हि होता है जो आध्यत्मिक कुंड्लिनी मार्ग मे किया जाता है ।
कर्णपिसाचिनि साधना समान अन्य साधनाये :
इस शक्ति के समान अन्य भी साध्नाये की जाती है । इसमे (1) कर्ण्मातन्गि (2) जुमा मेह्त्ररानी (3) बार्ताली आदि साधनाये है । इनकि बिधिया भी समान ही है । लिकिन मंत्र अलग-अलग हो जाते है ।

ल्कीर का फकीर बनकर ग्यान और साधना मे सफलता मिल भी जाये, तो निरथक होती है । हम सभी साधको को बताना चाहते है कि ये सभी शक्तिया मानशिक शक्तिया है । इंनकी सिद्धि का एक ही सुत्र है । मानशिक भाब को बिशष समीकरण मे गहन करना । बिधि मे साधक अपने अनुसार परिबर्तन कर सक्ता है । प्राचिन बिधियो मे भी एक कर्ण पिशाचिनी साधना की ही दर्जनो बिधिया है । इसलिए बिधियो क महत्व केबल समान भाब की बस्तुओ और क्रियाओ से है ।
एक बिशेष बात मे यह बताना चाहाता हु कि जो भी साधको गनेशजी की, हाकिनी की या आज्ञाचक्र की सिद्धि कर लेता है, उसे इन शक्तियो को सिद्ध करने क जरुरत ही नही होती । बह बिना सिद्धि हि इन्हे बुला सक्ता है ।

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जय माँ कामाख्या